भगवद्गीता, जिसे गीता के नाम से भी जाना जाता है, महाभारत के भीष्म पर्व के अंदर आने वाला एक पवित्र ग्रंथ है। यह कुल 700 श्लोकों का संग्रह है, यहा हमने भगवद्गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक दिए है, जो भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच कुरुक्षेत्र युद्ध के समय हुए संवाद पर आधारित है। इसमें जीवन, कर्म, धर्म, भक्ति, योग, और मोक्ष के गूढ़ रहस्यों का वर्णन किया गया है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध और जीवन के उद्देश्य के बारे में उपदेश दिया, जो हर मानव के लिए प्रेरणादायक है। यह ग्रंथ हमें निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञान का मार्ग दिखाता है और जीवन के कठिन समय में मन की शांति पाने का मार्गदर्शन करता है।
भगवद्गीता के कुछ महत्वपूर्ण श्लोक एवं उनके अर्थ
1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(अध्याय 2, श्लोक 47)
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए हमें अपने कर्म करते समय फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। फल का कारण बनने की आसक्ति भी नहीं रखनी चाहिए और अकर्मण्यता अर्थात बिना किसी कार्य के जीवन नहीं जीना चाहिए। इस संदेश में कर्म की महत्ता पर जोर दिया गया है, जिसमें बिना फल की इच्छा के निरंतर कार्य करने की प्रेरणा दी गई है।
2. योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
(अध्याय 2, श्लोक 48)
अर्थ:
श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन से कहते हैं कि योग में स्थिर होकर कर्म करो और आसक्ति को त्यागो। सफलता और असफलता दोनों में समान भाव रखो, क्योंकि यही समत्व की अवस्था है, जो योग कहलाती है। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन में हम न तो सफलता में अति उत्साहित हों और न ही असफलता में निराश, बल्कि प्रत्येक स्थिति में स्थिर रहें और कर्म करते रहें।
3. विद्या विनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥
(अध्याय 5, श्लोक 18)
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ज्ञान से परिपूर्ण और विनम्र होते हैं, वे विद्वान व्यक्ति, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में समान दृष्टि रखते हैं। यहाँ भगवान हमें सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञानी वही है जो सभी जीवों को समानता की दृष्टि से देखता है। बाह्य रूप, जाति या पद से नहीं, बल्कि आंतरिक आत्मा से सभी समान हैं।
4. उत्तमः स्वभावस्य कर्मणः स एव देहधारीणाम्।
कर्मणा एव संसारो न मृत्युना न जन्मना॥
(अध्याय 4, श्लोक 13)
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमारे जन्म और मृत्यु के बीच का संसार कर्म से बंधा हुआ है। यह कर्म ही है जो हमें संसार में बाँधे रखता है। अगर मनुष्य अपने कर्मों को अच्छे भाव से करता है, तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है और बुरे कर्म उसे संसार के बंधन में डालते हैं। यहाँ कर्म की प्रकृति और उसकी महत्ता को स्पष्ट किया गया है।
5. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
(अध्याय 18, श्लोक 66)
अर्थ:
यह श्लोक भगवद्गीता के सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, “सब प्रकार के धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम्हें शोक करने की आवश्यकता नहीं है।” यहाँ भगवान हमें यह सिखाते हैं कि आत्मसमर्पण और ईश्वर की शरण में आकर हम अपने सभी पापों से मुक्त हो सकते हैं और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
6. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
(अध्याय 2, श्लोक 23)
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान आत्मा की अमरता के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है, न जल उसे भिगो सकता है और न ही वायु उसे सुखा सकती है। आत्मा अमर, अजर और अविनाशी है। यह शाश्वत सत्य है, जो जीवन की वास्तविकता को समझने में मदद करता है।
7. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(अध्याय 4, श्लोक 7)
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ। भगवान धर्म की रक्षा के लिए समय-समय पर अवतार लेते हैं और धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सत्य और धर्म की रक्षा के लिए भगवान सदैव हमारे साथ होते हैं।
8. तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(अध्याय 8, श्लोक 7)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम हर समय मेरा स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करो। अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पित कर दो, तब तुम निश्चय ही मुझे प्राप्त करोगे। यह श्लोक हमें जीवन के हर क्षण में ईश्वर का स्मरण करने और अपने कर्मों को धर्मपूर्ण तरीके से करने की प्रेरणा देता है।
9. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
(अध्याय 3, श्लोक 5)
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि सभी मनुष्य प्रकृति द्वारा उत्पन्न गुणों से बाध्य होकर कार्य करते हैं। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि कर्म हमारे स्वभाव का अभिन्न अंग है, और हम हमेशा किसी न किसी प्रकार का कार्य करते रहते हैं। इसलिए हमें अपने कर्मों को धर्मपूर्वक करना चाहिए।
10. यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(अध्याय 9, श्लोक 27)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, “हे कौन्तेय (अर्जुन), जो भी तुम करते हो, जो खाते हो, जो यज्ञ करते हो, जो दान देते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पित करो।” इस श्लोक में भगवान हमें यह सिखाते हैं कि हमारे सभी कर्म, चाहे वे कितने भी साधारण क्यों न हों, अगर ईश्वर को अर्पित किए जाएं तो वे पवित्र हो जाते हैं और हमें मोक्ष की ओर ले जाते हैं।
11. क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
(अध्याय 9, श्लोक 31)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा भक्त बहुत शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति प्राप्त करता है। हे कौन्तेय, तुम यह निश्चित रूप से जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। यह श्लोक हमें ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास और भक्ति का संदेश देता है। जो व्यक्ति सच्चे हृदय से ईश्वर की भक्ति करता है, वह सदैव सुरक्षित और संरक्षित रहता है।
12. उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥
(अध्याय 7, श्लोक 18)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये सब उदार हैं, लेकिन ज्ञानी व्यक्ति मेरे लिए आत्मा के समान है। क्योंकि वह मेरे प्रति समर्पित है और मुझे ही अपनी सर्वोच्च गंतव्य मानता है। इस श्लोक में भगवान ज्ञान की महत्ता को बताते हैं। ज्ञानी व्यक्ति, जो ईश्वर के साक्षात्कार में लगा हुआ है, वह ईश्वर को अपने जीवन का परम लक्ष्य मानता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
13. द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥
(अध्याय 4, श्लोक 28)
अर्थ:
श्रीकृष्ण यहाँ विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कुछ लोग धन का दान करके, कुछ लोग तप करके, कुछ लोग योग द्वारा और कुछ लोग स्वाध्याय (अध्ययन) और ज्ञान के माध्यम से यज्ञ करते हैं। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि भिन्न-भिन्न मार्गों से व्यक्ति ईश्वर की आराधना और अपने जीवन को सुधार सकते हैं। कोई भी मार्ग अपनाया जाए, लेकिन भक्ति और निष्ठा आवश्यक है।
14. भूयः एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥
(अध्याय 10, श्लोक 1)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे महाबाहो, पुनः मेरे परम वचनों को सुनो, जिन्हें मैं तुम्हें प्रिय होने के कारण तुम्हारे कल्याण की इच्छा से कह रहा हूँ।” इस श्लोक में भगवान का प्रेम और दया अपने भक्तों के प्रति झलकती है। भगवान अर्जुन को फिर से अपने दिव्य ज्ञान का उपदेश देते हैं ताकि उसका आत्मकल्याण हो सके।
15. तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥
(अध्याय 11, श्लोक 33)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “इसलिए उठो और यश प्राप्त करो। शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य का भोग करो। ये शत्रु पहले ही मुझसे मारे जा चुके हैं, हे सव्यसाची (अर्जुन), तुम केवल निमित्तमात्र बनो।” इस श्लोक में भगवान हमें यह सिखाते हैं कि हम केवल साधन हैं और वास्तविक कार्य भगवान द्वारा ही होता है। हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, शेष ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।
16. यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
(अध्याय 16, श्लोक 23)
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति शास्त्रों के विधि-विधानों को छोड़कर अपनी इच्छानुसार कर्म करता है, वह न सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न ही परमगति को प्राप्त कर पाता है। इस श्लोक में भगवान शास्त्रों के महत्त्व को बताते हैं और सिखाते हैं कि हमें शास्त्रों के अनुसार अपने जीवन को संचालित करना चाहिए, अन्यथा हमें न तो सफलता मिलेगी और न ही सुख।
भगवद्गीता के ये श्लोक हमें जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन देते हैं, चाहे वह कर्म हो, भक्ति हो, ज्ञान हो या धर्म। इन श्लोकों के मर्म को समझकर और उन पर चलकर हम अपने जीवन को सफल और सार्थक बना सकते हैं।