अंकोरवाट और चोल साम्राज्य: इतिहास और मंदिरों की भव्यता
अंकोरवाट मंदिर, कंबोडिया में स्थित विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर, भारतीय संस्कृति और स्थापत्य कला का एक अनमोल रत्न है। यह मंदिर न केवल अपनी विशालता और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि प्राचीन खमेर साम्राज्य और भारतीय सांस्कृतिक प्रभावों का प्रतीक भी है। हालांकि, यह मंदिर खमेर साम्राज्य के राजा सूर्यवर्मन द्वितीय द्वारा बनवाया गया था, लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि इसकी वास्तुकला में दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य की मंदिर निर्माण शैली का प्रभाव देखा जा सकता है।
अंकोरवाट मंदिर का इतिहास
अंकोरवाट मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में खमेर साम्राज्य के राजा सूर्यवर्मन द्वितीय के शासनकाल में शुरू हुआ था। यह मंदिर मूल रूप से भगवान विष्णु को समर्पित एक हिंदू मंदिर के रूप में बनाया गया था, लेकिन 12वीं शताब्दी के अंत तक यह धीरे-धीरे बौद्ध मंदिर में परिवर्तित हो गया। यह मंदिर कंबोडिया के अंकोर क्षेत्र में, जिसे प्राचीनकाल में यशोधरपुर कहा जाता था, मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में स्थित है।
मंदिर का निर्माण कार्य सूर्यवर्मन द्वितीय ने शुरू किया, लेकिन वे इसे पूर्ण नहीं कर सके। उनके भतीजे और उत्तराधिकारी धरणीन्द्रवर्मन के शासनकाल में यह कार्य पूरा हुआ। मंदिर का डिज़ाइन मेरु पर्वत का प्रतीक माना जाता है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं में विश्व का केंद्र है। यह मंदिर 162.6 हेक्टेयर (लगभग 402 एकड़) के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है और इसे यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
अंकोरवाट की दीवारों पर भारतीय हिंदू धर्म ग्रंथों जैसे रामायण, महाभारत, हरिवंश पुराण, और समुद्र मंथन के दृश्यों का विस्तृत चित्रण किया गया है। मंदिर के गलियारों में राम कथा को संक्षिप्त रूप में दर्शाया गया है, जिसमें सीता स्वयंवर, रावण वध, और राम-रावण युद्ध जैसे दृश्य शामिल हैं।

अंकोरवाट की वास्तुकला
अंकोरवाट मंदिर खमेर शास्त्रीय शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें भारतीय मंदिर वास्तुकला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मंदिर का केंद्रीय शिखर 64 मीटर ऊँचा है, और इसके आसपास आठ अन्य शिखर 54 मीटर की ऊँचाई पर हैं। मंदिर को साढ़े तीन किलोमीटर लंबी पत्थर की दीवार घेरती है, जिसके बाहर 190 मीटर चौड़ी एक खाई है, जो प्राचीन काल में मंदिर की रक्षा करती थी।
मंदिर का प्रवेश द्वार लगभग 1,000 फुट चौड़ा है, और इसे एक पत्थर के पुल के माध्यम से पार किया जाता है। मंदिर का केंद्रीय परिसर पांच कमल के आकार के गुंबदों से सुसज्जित है, जो माउंट मेरु का प्रतीक हैं। दीवारों पर नक्काशी में हिंदू और बौद्ध धर्म की कहानियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं, जो मंदिर के धार्मिक परिवर्तन को दर्शाती हैं।
चोल साम्राज्य और अंकोरवाट का संबंध
चोल साम्राज्य, जो 8वीं से 12वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में विशेष रूप से तमिलनाडु में शक्तिशाली रहा, अपनी भव्य मंदिर वास्तुकला और समुद्री शक्ति के लिए जाना जाता है। चोलों ने द्रविड़ शैली में कई भव्य मंदिरों का निर्माण किया, जैसे तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर। कुछ विद्वानों का मानना है कि अंकोरवाट मंदिर की वास्तुकला में चोल मंदिरों की शैली का प्रभाव देखा जा सकता है।
चोल साम्राज्य ने दक्षिण-पूर्व एशिया के कई क्षेत्रों, जैसे श्रीलंका, मलेशिया, और इंडोनेशिया, में अपनी समुद्री शक्ति का विस्तार किया था। राजेंद्र चोल प्रथम के शासनकाल में चोलों ने दक्षिण-पूर्व एशिया के कई क्षेत्रों पर आक्रमण किया, जिससे भारतीय संस्कृति और कला का प्रभाव इन क्षेत्रों में फैला। हालांकि, इस बात का कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि अंकोरवाट का निर्माण चोलों ने किया था, लेकिन विद्वानों का मानना है कि खमेर और चोल साम्राज्यों के बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक संपर्कों के कारण वास्तुकला में समानताएँ देखी जा सकती हैं।
उदाहरण के लिए, अंकोरवाट के शिखरों और सीढ़ीदार संरचना में चोल मंदिरों की द्रविड़ शैली की झलक मिलती है। इसके अलावा, मंदिर की दीवारों पर भारतीय पौराणिक कथाओं का चित्रण चोल मंदिरों की नक्काशी से मिलता-जुलता है।
चोल साम्राज्य का अवलोकन
चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने 8वीं शताब्दी में की थी। उनके उत्तराधिकारी, जैसे आदित्य प्रथम, राजराज चोल, और राजेंद्र चोल, ने साम्राज्य का विस्तार किया और इसे दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बनाया। चोलों ने मंदिर निर्माण, कला, साहित्य, और नाटक को प्रोत्साहन दिया। उनके द्वारा निर्मित मंदिर, जैसे तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर, द्रविड़ वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
चोल राजा मुख्य रूप से शैव थे और उन्होंने कई शिव मंदिरों का निर्माण किया, लेकिन उन्होंने वैष्णववाद को भी प्रोत्साहित किया। चोल साम्राज्य की समृद्धि और सांस्कृतिक प्रभाव ने दक्षिण-पूर्व एशिया तक अपनी छाप छोड़ी, जिसका प्रभाव अंकोरवाट जैसे मंदिरों में देखा जा सकता है।

अंकोरवाट की सांस्कृतिक महत्ता
अंकोरवाट मंदिर कंबोडिया का राष्ट्रीय प्रतीक है और इसे कंबोडिया के राष्ट्रीय ध्वज में भी स्थान दिया गया है। यह मंदिर न केवल धार्मिक स्थल है, बल्कि पर्यटकों के लिए भी एक प्रमुख आकर्षण है। मंदिर का सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य विश्व प्रसिद्ध है, और इसे देखने के लिए हर साल लाखों पर्यटक कंबोडिया आते हैं।
मंदिर की दीवारों पर चित्रित अप्सराएँ, समुद्र मंथन, और रामायण के दृश्य भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रभाव को दर्शाते हैं। यह मंदिर सनातन धर्म को मानने वालों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थान भी है।
निष्कर्ष
अंकोरवाट मंदिर भारतीय संस्कृति और खमेर साम्राज्य की स्थापत्य कला का एक अनूठा संगम है। हालांकि इसे खमेर राजा सूर्यवर्मन द्वितीय ने बनवाया था, लेकिन इसकी वास्तुकला में चोल साम्राज्य की मंदिर निर्माण शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। यह मंदिर न केवल अपनी भव्यता और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रसार का भी प्रतीक है। अंकोरवाट आज भी विश्व के सबसे बड़े धार्मिक स्मारकों में से एक है और यह कंबोडिया की सांस्कृतिक धरोहर का गौरव बढ़ाता है।