महाराणा संग्राम सिंह, जिन्हें इतिहास में “राणा सांगा” के नाम से जाना जाता है, मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के एक महान शासक और अद्वितीय योद्धा थे। उनका जन्म 12 अप्रैल 1482 को चित्तौड़ में हुआ और मृत्यु 30 जनवरी 1528 को हुई। 1509 से 1528 तक मेवाड़ की गद्दी संभालने वाले राणा सांगा को उनकी वीरता, नेतृत्व क्षमता और राजपूत एकता के प्रयासों के लिए याद किया जाता है।
भारतीय इतिहास में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम राणा सांगा के जीवन, उनके युद्धों, शासनकाल और योगदान के बारे में विस्तार से जानेंगे। यह लेख SEO के लिए अनुकूलित है और राणा सांगा से संबंधित कीवर्ड्स जैसे “राणा सांगा का इतिहास”, “खानवा का युद्ध”, “मेवाड़ के शासक” आदि को ध्यान में रखकर लिखा गया है।
राणा सांगा का प्रारंभिक जीवन और परिवार
राणा सांगा का जन्म मेवाड़ के शासक राणा रायमल और उनकी पत्नी रतन कंवर (चौहान वंश की राजकुमारी) के यहाँ हुआ था। वे रायमल के चार पुत्रों – पृथ्वीराज, जयमल, संग्राम सिंह और एक अन्य भाई – में सबसे छोटे थे। उनके दादा महाराणा कुम्भा मेवाड़ के एक महान शासक और कला प्रेमी थे, जिन्होंने कुम्भलगढ़ किला और विजय स्तंभ जैसे निर्माण करवाए थे। सांगा का बचपन युद्ध कौशल, घुड़सवारी और शासन प्रशिक्षण में बीता।
सिंहासन तक पहुँचने का उनका सफर आसान नहीं था। एक प्रसिद्ध किंवदंती के अनुसार, जब रायमल के चारों पुत्रों ने एक ज्योतिषी से पूछा कि अगला शासक कौन होगा, तो ज्योतिषी ने संग्राम सिंह का नाम लिया। इससे उनके बड़े भाई पृथ्वीराज नाराज हो गए और उन्होंने सांगा पर हमला कर दिया। इस हमले में सांगा की एक आँख फूट गई, लेकिन उनके चाचा सूरजमल ने उन्हें बचा लिया। बाद में, पृथ्वीराज की मृत्यु और पारिवारिक संघर्षों के बाद, 1509 में 27 साल की उम्र में सांगा मेवाड़ के राणा बने।
शासनकाल और मेवाड़ का स्वर्णिम युग
राणा सांगा का शासनकाल मेवाड़ के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व और युद्ध कौशल से मेवाड़ को एक शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य में बदल दिया। उनके शासन में मेवाड़ का क्षेत्रफल उत्तर में सतलज नदी (पंजाब) से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी (मालवा), पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में बयाना, भरतपुर और ग्वालियर तक फैला था। यह विशाल साम्राज्य डेढ़ सौ साल के मुस्लिम शासन के बाद स्थापित हुआ था।
सांगा ने राजपूत एकता को बढ़ावा देने के लिए कूटनीति और वैवाहिक संबंधों का सहारा लिया। उनकी चार पत्नियों में से कुछ प्रमुख थीं – रानी धनबाई (राठौड़), रानी कर्णावती (बुंदेलखंड की राजकुमारी), और रानी जयमती। उनके कई पुत्र थे, जिनमें रतन सिंह, विक्रमादित्य, उदय सिंह और भोजराज शामिल हैं। उदय सिंह बाद में मेवाड़ के शासक बने और उनके पुत्र महाराणा प्रताप ने सांगा की वीरता को आगे बढ़ाया।
राणा सांगा के प्रमुख युद्ध और विजय
राणा सांगा ने अपने जीवन में लगभग 100 युद्ध लड़े और केवल एक बार हारे। उनके शरीर पर 80 से अधिक घाव थे – एक हाथ कट गया था, एक पैर लंगड़ा हो गया था और एक आँख खराब थी। फिर भी, उनकी वीरता और संकल्प अडिग रहे। यहाँ उनके कुछ प्रमुख युद्धों का विस्तृत विवरण है:
1. खातोली का युद्ध (1517-1518)
यह युद्ध दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के खिलाफ लड़ा गया। लोदी ने मेवाड़ पर आक्रमण की योजना बनाई थी, लेकिन सांगा ने खातोली (कोटा के पास) में उनकी सेना को करारी शिकस्त दी। इस युद्ध में सांगा घायल हो गए, लेकिन उनकी सेना ने लोदी के एक राजकुमार को बंदी बना लिया। यह विजय मेवाड़ की शक्ति का प्रतीक बनी।
2. धौलपुर का युद्ध (1519)
इब्राहिम लोदी ने दोबारा मेवाड़ पर हमला किया, लेकिन धौलपुर में सांगा ने फिर से उसे परास्त कर दिया। इस हार के बाद लोदी का राजस्थान पर नियंत्रण कमजोर पड़ गया। इस युद्ध ने सांगा की सैन्य रणनीति को और मजबूत किया।
3. गागरोन का युद्ध (1519)
मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी और गुजरात की संयुक्त सेना ने मेवाड़ पर हमला किया। सांगा ने गागरोन में उनकी सेना को हराया और मालवा के पूर्वी और उत्तरी हिस्सों पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध में महमूद खिलजी घायल होकर रणक्षेत्र में गिर गए थे। सांगा ने उन्हें सम्मान के साथ चित्तौड़ लाया, उनका इलाज करवाया और बाद में उनकी राजधानी मांडू वापस भेज दिया। यह घटना उनके उदार और नैतिक चरित्र को दर्शाती है।
4. बयाना का युद्ध (1527)
बाबर के मुगल साम्राज्य के खिलाफ सांगा ने बयाना पर हमला किया और वहाँ के किले को जीत लिया। यह उनकी आखिरी बड़ी विजय थी, जिसने बाबर को सांगा की शक्ति का अहसास कराया। बयाना की जीत ने राजपूतों का मनोबल बढ़ाया।
5. खानवा का युद्ध (16 मार्च 1527)
खानवा का युद्ध राणा सांगा के जीवन का सबसे प्रसिद्ध और निर्णायक युद्ध था। बाबर, जो 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई जीतकर भारत में मुगल शासन की नींव रख चुका था, सांगा के बढ़ते प्रभाव से चिंतित था। खानवा (आगरा से 60 किमी पश्चिम) में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ। सांगा ने एक विशाल राजपूत सेना का नेतृत्व किया, जिसमें मेवाती के हसन खाँ, लोदी के महमूद लोदी और मेड़ता के राव वीरमदेव जैसे सहयोगी शामिल थे।
बाबर ने इस युद्ध को “जिहाद” घोषित किया और तोपों व तुगलामा युद्ध नीति का इस्तेमाल किया। युद्ध के दौरान सांगा एक तीर से घायल हो गए और बेहोश हो गए। उनके भाई-ननिहाल पृथ्वीराज कछवाहा और मालदेव राठौड़ उन्हें युद्धक्षेत्र से बाहर ले गए। सांगा की अनुपस्थिति में राजपूत सेना कमजोर पड़ गई और बाबर विजयी हुआ। इस हार ने भारत में मुगल शासन को मजबूत करने का रास्ता खोल दिया।
राणा सांगा की मृत्यु और रहस्य
खानवा के युद्ध के बाद सांगा को बसवा (दौसा) ले जाया गया, जहाँ उन्हें होश आया। वे फिर से बाबर के खिलाफ युद्ध की योजना बनाने लगे और इरिच गाँव पहुँचे। लेकिन उनके कुछ सरदारों ने बाबर से आगे की लड़ाई को आत्मघाती माना और उनकी योजना का विरोध किया। 30 जनवरी 1528 को चित्तौड़ में उनकी मृत्यु हुई। इतिहासकारों का मानना है कि उनके अपने ही सरदारों ने उन्हें जहर दे दिया था, क्योंकि वे और युद्ध नहीं चाहते थे।
उनका अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया, जहाँ उनके दाह संस्कार स्थल पर एक छतरी बनाई गई। एक किंवदंती के अनुसार, युद्ध में उनका सिर मांडलगढ़ में गिरा था और धड़ चावंडिया तालाब के पास वीरगति को प्राप्त हुआ था
राणा सांगा का परिवार और उत्तराधिकार
सांगा की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी रानी कर्णावती ने अपने पुत्र उदय सिंह को गद्दी पर बिठाया और संरक्षक के रूप में शासन संभाला। उदय सिंह के शासनकाल में मेवाड़ पर कई संकट आए, लेकिन उनके पुत्र महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी वीरता से सांगा की परंपरा को जीवित रखा। सांगा के अन्य पुत्रों में रतन सिंह और विक्रमादित्य भी थे, लेकिन उदय सिंह ही उनके मुख्य उत्तराधिकारी बने।
राणा सांगा का व्यक्तित्व और योगदान
राणा सांगा को उनके समकालीन लोग बेहद सम्मान देते थे। बाबर ने अपनी आत्मकथा “बाबरनामा” में सांगा को “हिंदुस्तान का सबसे महान काफिर राजा” कहा और उनकी शक्ति व साहस की प्रशंसा की। मुगल इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूनी ने उन्हें पृथ्वीराज चौहान के साथ सबसे वीर राजपूत बताया।
सांगा ने हिंदुओं पर लगने वाले जजिया कर को हटाया और मालवा में हिंदू शासन की स्थापना की। उन्हें “हिंदूपत” और “हिंदवा सूरज” की उपाधियाँ दी गईं। वे उत्तरी भारत के अंतिम स्वतंत्र हिंदू शासक थे, जिन्होंने एक बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण रखा। उनके शासन में मेवाड़ ने कला, संस्कृति और सैन्य शक्ति में अभूतपूर्व प्रगति की।
सांगा ने हिंदुओं पर लगने वाले जजिया कर को हटाया और मालवा में हिंदू शासन की स्थापना की। उन्हें “हिंदूपत” और “हिंदवा सूरज” की उपाधियाँ दी गईं। वे उत्तरी भारत के अंतिम स्वतंत्र हिंदू शासक थे, जिन्होंने एक बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण रखा। उनके शासन में मेवाड़ ने कला, संस्कृति और सैन्य शक्ति में अभूतपूर्व प्रगति की।
रोचक तथ्य
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शारीरिक शक्ति: सांगा 7 फीट लंबे थे और उनकी तलवार का वजन 20 किलो से अधिक था।
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सहयोगी: उनके पास 80,000 घुड़सवार और 7 हाथियों की सेना थी।
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उपनाम: उन्हें “भाला मैन” भी कहा जाता था, क्योंकि वे भाले से युद्ध में माहिर थे।
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सांस्कृतिक योगदान: उनके शासन में चित्तौड़ में कई मंदिरों और किलों का जीर्णोद्धार हुआ।
राणा सांगा का जीवन त्याग, बलिदान और वीरता की एक अनुपम मिसाल है। उनकी कहानी भारतीय इतिहास में एक गौरवशाली अध्याय है, जो हमें साहस, एकता और मातृभूमि के प्रति समर्पण की प्रेरणा देती है। भले ही वे खानवा में हार गए, लेकिन उनकी वीरता और नेतृत्व आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। अगर आप मेवाड़ के इतिहास, राणा सांगा के युद्धों या राजपूत वीरता के बारे में और जानना चाहते हैं, तो इस ब्लॉग को शेयर करें और अपनी राय कमेंट में बताएँ!
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